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संकीर्तन- मणिपुर का अनुष्‍ठान गायन, ढोलक वादन और नर्तन

  • मणिपुर का संकीर्तन, अनुष्‍ठान , गायन , ढोलक बजाना  और नृत्य करना
  • मणिपुर का संकीर्तन, अनुष्‍ठान , गायन , ढोलक बजाना  और नृत्य करना
  • मणिपुर का संकीर्तन, अनुष्‍ठान , गायन , ढोलक बजाना  और नृत्य करना

2013 (8.COM) में मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रातिनिधिक सूची में अंकित

संकीर्तन में, मणिपुर के वैष्णव लोगों के जीवन में व्याप्त धार्मिक उत्सवों और विभिन्न चरणों को चिह्नित करने के लिए प्रदर्शित की जाने वाली कई कलाएँ शामिल हैं। संकीर्तन परंपरा, मंदिरों से संबंधित है जहाँ कलाकार, गायन और नृत्य के माध्यम से कृष्ण के जीवन और उनके कार्यों का बखान करते हैं। किसी भी प्रदर्शन में दो ढोल बजाने वाले और लगभग दस गायक-नर्तक एक सभागृह या घरेलू प्रांगण में उन्हें घेरकर बैठे हुए भक्तों के बीच अपनी कला प्रस्तुत करते हैं। इस प्रदर्शन के दौरान सौंदर्यपरक और धार्मिक ऊर्जा की गरिमा और प्रवाह अद्वितीय होता है जिसे देखकर दर्शक भावविभोर होकर रोने लगते हैं और अक्सर कलाकारों को साष्टांग प्रणाम करते हैं। संकीर्तन के दो मुख्य सामाजिक कार्य होते हैं- पहला, यह लोगों को सालभर उत्सव के अवसर पर एक दूसरे के निकट लाते हुए मणिपुर के वैष्णव समुदाय के भीतर एकजुटता बनाए रखने वाले कारक के रूप में कार्य करता है; और दूसरा, यह जीवन के मुख्य समारोहों के माध्यम से व्यक्ति और उसके समुदाय के बीच संबंधों को स्थापित करता है और उन्हें सुदृढ़ बनाता है। इसलिए इसे ईश्वर का साक्षात् स्वरूप माना जाता है। मणिपुर का संकीर्तन एक जीवंत प्रथा है जो लोगों के आपसी संबंधों को मज़बूत करती है। पूरा समाज इस प्रथा को आगे बढ़ाने और इसे सुरक्षित रखने के प्रयास में शामिल होता है। इस प्रथा का विशिष्ट ज्ञान और कौशल गुरु अपने शिष्य को पारंपरिक रूप से सुपुर्द करते हैं। संकीर्तन प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर कार्य करता है, जिसका अस्तित्व इसके कई अनुष्ठानों में झलकता है।

संकीर्तन, मणिपुर में आनुष्ठानिक नृत्य और संगीत कला का एक प्रकार है। इसका प्रदर्शन स्थान पूर्वमुखी और वर्गाकार होता है और कला खुद एक वृत्त में प्रदर्शित की जाती है। मणिपुर की इस अनूठी सांस्कृतिक विरासत को 2013 में यूनेस्को की मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रातिनिधिक सूची में शामिल किया गया था।

पुरालेख बताते हैं कि कीर्तन गायन ने पंद्रहवीं शताब्दी में बंगाल के राजा कियंबा के शासनकाल में (1467-1508) मणिपुर में प्रवेश किया था। यह भक्ति कला बहुत जल्द ही मणिपुर के वैष्णव समुदाय के भीतर एक विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा के रूप में विकसित हुई। कहा जाता है कि विष्णुपुर नाम के एक गाँव में भगवान विष्णु के छोटे-से मंदिर में पहला कीर्तन किया गया था। इस पहले कीर्तन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है।

अठारहवीं शताब्दी में राजा गरीबनवाज़ के शासनकाल में (1709-1748) रामानंदी संप्रदाय को राजा द्वारा अपनाया गया था। यह वैष्णव संप्रदाय की एक शाखा है जो राम के साथ-साथ विष्णु की पूजा पर ज़ोर देती है और इस प्रकार कीर्तन की बंगदेश परंपरा लोकप्रिय हो गई। बंगदेश या अरीबा पाला मणिपुरी नृत्य का एक प्रकार है, जिसमें गायन और पुंग या ढोल, दोनों ही प्रदर्शन के अभिन्न अंग हैं। यह नृत्य कला मणिपुर के शाही महल और अन्य केंद्रों से जुड़ गई जो आज भी प्रचलित है। उन्नीसवीं शताब्दी में कीर्तन के प्रदर्शन के तरीके में बदलाव आया और अब इस नई शैली को नट संकीर्तन कहा जाने लगा। इसे राजा चंद्रकीर्ति के शासनकाल के दौरान (1850-1886) राजर्षि भाग्यचंद्र द्वारा पेश किया गया था। इस शैली में 32 दिनों की अवधि में 64 रस प्रदर्शित किए जाते थे।

जो संगीतकार कीर्तन गाता है, वह नट कहलाता है। शास्त्रीय संस्कृत नाटकों में नट एक अभिनेता को कहते हैं जो मंच पर दिखाई देता है। नट संकीर्तन को बंगाल के सोलहवीं शताब्दी के वैष्णव संत नरोत्तम दास ठाकुर के लीला कीर्तन के विस्तार के रूप में भी देखा जाता है। लीला कीर्तन की तरह इस कीर्तन में भक्ति गीतों के प्रदर्शन में कई प्रकार के आलाप, राग, ताल आदि का उपयोग किया जाता है और किसी भी नट संकीर्तन के लिए गौर-चंद्रिका (कीर्तन प्रदर्शन का मंगलाचरण) को मुखड़े के रूप में गाया जाता है।

नट संकीर्तन के प्रदर्शन में लगभग पाँच घंटे लगते हैं जहाँ गीतों को गति या लय अर्थात् चोलोम के साथ विभिन्न रागों और तीनताल, द्विताल, राजमेल और एकताल जैसे तालों का उपयोग करते हुए गाया जाता है। इन प्रदर्शनों के संगीत पाठ में विभिन्न वैष्णव कवियों द्वारा बंगाली, मैथिली, ब्रजभाषा और मणिपुरी में रची गईं पदावलियाँ (राधा कृष्ण कथा पर केंद्रित वैष्णव कविता) शामिल हैं। संकीर्तन की चार मुख्य शैलियाँ हैं - अरीबा (बंगदेश) पाला, मनोहरसाई, धोप या चैतन्य संप्रदाय और ध्रूमेई।