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सर आशुतोष मुखर्जी
स्वयं में ही एक अनूठे संस्थान

"मैं वाइसरॉय और भारत के गवर्नर जनरल से कह दूँगा कि आशुतोष मुखर्जी अपनी माँ के अलावा किसी और की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, चाहे वह वाइसरॉय हो या कोई और" –सर आशुतोष मुखर्जी हमेशा अपने शब्दों को दृढ़ता से व्यक्त करते थे, और बहुत सोच-विचार के बाद ही कुछ बोलते थे। यह आश्चर्य की बात नहीं है, कि वे बंगाली मंडलियों में बांग्ला बाघ के रूप में प्रसिद्ध थे। इस तरह का उपनाम, और वह भी एक वकील के लिए, हमें उस व्यक्ति के स्वभाव के बारे में बहुत कुछ बताता है।

एक बहुमुखी व्यक्तित्व वाले सर आशुतोष मुखर्जी, विख्यात व्यक्तियों के बीच एक शेर के समान थे। वे एक ऐसी दुनिया का हिस्सा थे, जहाँ वे टैगोर, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, पी सी रॉय, स्वामी विवेकानंद समेत ऐसे कई अन्य लोगों के कदम से कदम मिलाकर चले, जिनकी क्षमता और बुद्धिमत्ता आज भी अतुल्य है। सर आशुतोष मुखर्जी की कहानी का महत्त्व एक ऐसे संदर्भ में देखा जा सकता है, जिसमें शिक्षा के कारण देश में कई ज़रूरी परिवर्तन आए।

सर आशुतोष का जन्म 29 जून 1864 को कलकत्ता के बोबाज़ार में हुआ था। अपने जीवन के शुरूआती दौर में ही वे गणित, विज्ञान और साहित्य से परिचित हो गए थे, और दिलचस्प बात यह है कि अपने शैक्षिक जीवन के दौरान उन्हें ईश्वर चंद्र विद्यासागर और टैगोर जैसे अन्य बुद्धिजीवियों से मिलने और बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। निस्संदेह इन कारकों का उन पर एवं उनके व्यावसायिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

1880 में, उन्हें कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला मिला, जहाँ उन्होंने अपने कौशल को और निपुणता से सँवारा। एक छात्र के रूप में, वहाँ उन्हें प्रफुल्ल चंद्र रॉय और नरेंद्रनाथ दत्ता (जिन्हें हम स्वामी विवेकानंद के नाम से जानते हैं) जैसे साथी मिले। उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता के कारण, उस वातावरण ने उनके जीवन का रुख बदल दिया। सर आशुतोष मुखर्जी की प्रतिभा पर कोई दो राय नहीं थी, क्योंकि जब वे केवल एक प्रथम वर्षीय पूर्वस्नातक के छात्र थे, उन्होंने यूक्लिड की पहली पुस्तक के पच्चीसवें प्रस्ताव का सबूत देते हुए गणित में अपना पहला लेख प्रकाशित कर दिया था।

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सर आशुतोष मुखर्जी

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महान शख्सियतों के बीच एक शेर
 

सर आशुतोष मुखर्जी एक विख्यात शिक्षाविद् थे। गणित और भौतिकी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद, वे कलकत्ता विश्वविद्यालय से दोहरी डिग्री प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बने। परंतु शिक्षा प्राप्त करने की उनकी चाह यहीं खत्म नहीं हुई। 1883 की एक घटना ने सर आशुतोष को वकालत शुरू करने के लिए प्रेरित किया। सुरेंद्रनाथ बैनर्जी को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश की आलोचना करते एक लेख के लिए गिरफ़्तार किया गया था। इसके पश्चात, सर आशुतोष ने उनकी गिरफ़्तारी के खिलाफ़ हुए एक विरोध का नेतृत्व किया था। ऐसा माना जाता है, कि इसी घटना ने उन्हें कानून की बारीकियों का अध्ययन और अन्वेषण करने के लिए प्रेरित किया था। इस विषय में उनकी योग्यता तो स्पष्ट थी ही, क्योंकि उन्होंने लगातार तीन वर्षों तक 'टैगोर गोल्ड मेडल' (1884, 1885 और 1886) जीता था। उसके पश्चात, वे रास बिहारी घोष की कचहरी में शामिल हो गए, जिनका उस समय में वकालत की दुनिया में एक बड़ा नाम था।

अपने कानूनी अभ्यास में व्यस्त रहने के बावजूद भी, उन्होंने गणित और भौतिकी अवधारणाओं पर विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित करना जारी रखा। 24 साल की उम्र में आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के सदस्य बने और अंग्रेज़ी शासन द्वारा उन्हें 'सर' की उपाधि से सम्मानित किया गया। 1908 में, उन्होंने कलकत्ता गणित सोसाइटी की स्थापना की और 1924 तक वे इसके अध्यक्ष बने रहे।

सर आशुतोष मुखर्जी ऐसे विद्वान थे, जिन्होंने कई क्षेत्रों में महारथ हासिल की थी। उन्होंने बंगाल उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया, और 1906 से 1914 और 1921 से 1923 तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय, जो कि देश में शिक्षा का एक प्रमुख संस्थान है, के कुलपति (वीसी) बनने वाले दूसरे भारतीय बने। कुलपति के रूप में उनके कार्यकाल के बारे में आज भी चर्चा की जाती है, क्योंकि वे कक्षाओं में प्रमुख प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को शामिल करने में सक्षम रहे। अंततः इस कारण यह विश्वविद्यालय पूरे उपमहाद्वीप में शिक्षा का एक उत्कृष्ट केंद्र बन गया। वास्तव में, वे जीवन भर विश्वविद्यालय के कामकाजों में ही व्यस्त रहे।

सर आशुतोष सहजता से प्रतिभा की पहचान करने के लिए प्रसिद्ध थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय में कुशल अध्यापकों और शिक्षाविदों को शामिल करने के लिए, उन्होंने कई विद्वानों और दोस्तों के अपने विशाल समूह से सहायता ली। उनकी "खोज" में डॉ सी वी रमन, जो उस वक्त वहाँ भौतिकी के अध्यापक थे, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, श्रीनिवास रामानुजन, और कई अन्य लोग भी शामिल थे। बहुत जल्द, कलकत्ता विश्वविद्यालय, शैक्षिक और बौद्धिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। पी सी रॉय, जिन्हें आधुनिक भारत में रसायन विज्ञान का जनक माना जाता है, और पुरालेखशास्त्री डी आर भंडारकर जैसे दिग्गजों ने भी विद्वानों से परिपूर्ण यहाँ की अध्यापक-मंडली में और अधिक मूल्य जोड़ा। ऐसा कहा जाता है कि वे ऐसे दिन थे जब छात्र और शिक्षक रवींद्रनाथ टैगोर के अतिथि व्याख्यानों में भाग लेने के लिए एकत्रित हुआ करते थे। सर आशुतोष ने यहाँ एक ऐसे माहौल और विविधता को बढ़ावा दिया, जिससे वे उच्च कोटी की बुद्धीजीवी स्वतंत्रता को भरपूर प्रोत्साहन देने के कारण, असली मायनों में विक्रमादित्य के रूप में प्रसिद्ध हुए।

जीवन के हर क्षेत्र में सर आशुतोष ने अपार चरित्र और साहस का प्रदर्शन किया। 1916 में, सुभाष चंद्र बोस (आज़ाद हिन्द फ़ौज) नामक उनके एक छात्र का अपने अध्यापक के साथ विवाद हो गया था। इसके बाद हुई बहस में, सुभाष, अध्यापक ओटेन के जातिवाद और भारतीय छात्रों के प्रति उनके अड़ियल रवैये से इतने आगबबूले हो गए, कि गुस्से में आकर उन्होंने अध्यापक पर हमला कर दिया। कुलपति होने के कारण, सर आशुतोष को सुभाष को विश्वविद्यालय परिसर से निलंबित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। परंतु उन्होंने युवा बोस के शैक्षणिक जीवन को सुरक्षित करने कि लिए भी कदम उठाए, और उन्हें दूसरे महाविद्यालय में स्थानांतरित करने की व्यवस्था की। ये वही सुभाष चंद्र बोस हैं, जिन्होंने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की और भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में आज़ाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व भी किया। इस घटना ने अंग्रेज़ी अधिकारियों के रवैये को बहुत बदल दिया। वे इस विश्वविद्यालय को विद्रोह के केंद्र के रूप में देखने लगे और परिणामस्वरूप, विद्यालय के कामकाज और कुलपति की शक्तियों पर उन्होंने नियंत्रण लगाने शुरू कर दिए। ऐसे कठोर नियंत्रणों के कारण, सर आशुतोष ने कुलपति के अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

इस बीच, वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने सर आशुतोष को, कलकत्ता उच्च-न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभालने के लिए आमंत्रित किया। एक परंपरावादी होने के कारण, सर आशुतोष ने कार्यभार स्वीकार करने से पहले अपनी माँ की अनुमति माँगी। उन्होंने 1904 से 1923 तक न्यायाधीश के रूप में कार्य किया और 1920 में कलकत्ता उच्च-न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने। उस समय के साम्राज्यवादी कभी भी इस तरह के उच्च पदों पर भारतीयों का होना पसंद नहीं करते थे। इसलिए, सर आशुतोष का इतने प्रतिष्ठित पद पर पदोन्नत होना और भी अधिक प्रशंसनीय हो जाता है, क्योंकि यह पूरी तरह से योग्यता पर ही आधारित था। सब जानते ही हैं कि एक न्यायाधीश के रूप में, सर आशुतोष ने लगभग 20,000 निर्णय दिए थे, जिनमें से कई आज भी न्यायिक कौशल की मिसाल माने जाते हैं।

एक ओर जहाँ उनके जीवन में शिक्षा का दबदबा रहा, वहीं उनके जीवन की कई घटनाएँ ऐसी भी थीं, जिनसे उनकी तीव्र बुद्धि और आकर्षक स्वभाव के बारे में पता चलता है। दक्षिण अफ़्रीका की एक ट्रेन में गांधीजी के हुए अपमान की कहानी भारत में काफ़ी प्रसिद्ध है, परंतु सर आशुतोष के बारे में भी एक ऐसी ही कथा है, जो खुद प्रथम-श्रेणी में एक अवांछित ट्रेन-यात्री थे। उनका सहयात्री, जो एक गोरा बागानों का मालिक था, उसने सोते हुए आशुतोष की चप्पलें ट्रेन के डिब्बे से बाहर फेंक दीं, क्योंकि उन्हें एक देशी के साथ यात्रा करना अप्रिय लगा। बदला लेने के लिए आशुतोष ने सोते हुए उस सहयात्री का कोट बाहर फेंक दिया। कोट के बारे में पूछे जाने पर आशुतोष ने जवाब दिया, "तुम्हारा कोट मेरी चप्पल लाने गया है"। उनके व्यंग्यपूर्ण अंदाज़ ने उस गोरे आदमी को ज़मीन पर ला दिया। लॉर्ड कर्ज़न चाहते थे कि सर आशुतोष इंग्लैंड जाएँ, ताकि इंग्लैंड में रहने वाले अंग्रेज़ भी भारत में औपनिवेशिक शिक्षा-प्रणाली में प्रशिक्षित बुद्धिजीवियों से अच्छी तरह परिचित हो सकें। सर आशुतोष द्वारा उन्हें दिया गया जवाब आज भी सराहना के योग्य माना जाता है। सदैव हाज़िरजवाब, आशुतोष ने उन्हें विनम्रता से मना किया, और कहा कि उनकी माँ की धार्मिक मान्यताओं के चलते वे अपने बेटे को समुद्र पार करने की अनुमति नहीं दे सकतीं। उनकी माँ का इंकार करना, हिंदुओं के बीच एक धार्मिक मान्यता पर आधारित था, जिसके अनुसार यदि समुदाय का कोई सदस्य समुद्र पार जाता है, तो वह अपनी जाति की शुद्धता खो देता है। जब कर्ज़न ने अपना आदेश जारी किया, तो उन्होंने कहा "अपनी माँ से कहो कि भारत के वाइसरॉय और गवर्नर-जनरल ने उसके बेटे को जाने का आदेश दिया है," जिसका आशुतोष ने दृढ़ता से यह कहते हुए जवाब दिया, "मैं वाइसरॉय और भारत के गवर्नर जनरल से कह दूँगा की आशुतोष मुखर्जी अपनी माँ के अलावा किसी और की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, चाहे वह वाइसरॉय हो या कोई और”। आशुतोष अपनी बातों को घुमा फिरा कर न कहकर, हमेशा अपने विचारों को बहुत ही स्पष्ट रूप से व्यक्त करते थे।

कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपनी सेवानिवृत्ति के बाद सर आशुतोष ने अपना निजी कानूनी अभ्यास दोबारा शुरू किया। जहाँ एक ओर उन्होंने देश के सबसे होनहार स्वतंत्रता सैनानियों और क्रांतिकारियों के साथ काम किया, वहीं दूसरी ओर, उन्होंने उतनी ही सहजता से अंग्रेज़ी शासन और उसकी प्रशासनिक व्यवस्था के साथ भी काम किया।

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स्टेट्समैन हाउस (कलकत्ता) के बाहर स्थापित सर आशुतोष मुखर्जी की एक प्रतिमा

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सर आशुतोष मुखर्जी के सम्मान में जारी किया गया एक स्मारक डाक टिकट

1924 में पटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया। परंतु वे अपने पीछे एक ऐसी महत्वपूर्ण बौद्धिक और सांस्कृतिक विरासत छोड़ कर गए हैं, जिसकी बराबरी करना किसी के लिए भी मुश्किल होगा। वे एक उत्साही पुस्तक प्रेमी भी थे। तथ्यों के अनुसार, जब भी सर आशुतोष कलकत्ता की प्रसिद्ध कॉलेज स्ट्रीट से किताबें खरीदते थे, उन्हें घर तक ले जाने के लिए उन्हें कुलियों की सेवाएँ लेनी पड़ती थी। इस कारण, आज लगभग 80,000 पुस्तकों का उनका निजी संग्रह, उनके उत्तराधिकारियों द्वारा शहर के राष्ट्रीय पुस्तकालय को दान किया गया है।

राष्ट्र निर्माण और शिक्षा के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान को याद रखने के लिए, सर आशुतोष मुखर्जी की मूर्तियाँ स्टेट्समैन हाउस (कलकत्ता) के बाहर और संतरागाछी केदारनाथ संस्थान (हावड़ा) में स्थापित की गई हैं।

सर आशुतोष मुखर्जी का सम्मान करने और उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए, 1964 में, भारत सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया था, जिसमें उन्हें "वॉलरस मूँछ" के साथ दर्शाया गया था। रवींद्रनाथ टैगोर ने बिल्कुल सही ही कहा था, "आशुतोष में सपने देखने का साहस था, क्योंकि उनमें लड़ने की शक्ति और विजय पाने का आत्मविश्वास था - उनकी चाह ही उनके लक्ष्य का मार्ग थी।"