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लचित बोरफुकन : असम का बहादुर योद्धा

“क्या ऐसा संभव है, महाराज, कि आपके राज्य में कोई भी योग्य व्यक्ति ना हो? शत्रु क्या हैं? अंततः वे सभी एक सामान्य मनुष्य हैं। क्या हमें अपने राज्य में इसी प्रकार के मनुष्य नहीं मिलेंगे? महाराज, केवल आपके चरणों की धूलि चाहिए, और इस अवसर के अनुकूल आदमी तो बड़ी सरलता से मिल जाएगा।’’

-ये शब्द लचित डोलकाशरिया बरुआ (लाचित बोरफुकन) के हैं, जो उन्होंने आहोम राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के दरबार में राजा को संबोधित करते हुए कहे थे।

लाचित : एक लंबी विजय गाथा


असम के चराईदेव में 24 नवंबर 1922 को जन्मे लचित, सुकुती ( मामोई-तामुली के नाम से प्रसिद्ध) के सबसे छोटे बेटे थे, जो मुगल सम्राट जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन काल में आहोम-मुगल युद्ध में असम के सेनापति थे। राजा स्वर्गदेव के शासनकाल में आहोम राज्य (1228-1826 ईस्वी) का काम-काज पाँच उच्चाधिकारियों द्वारा सँभाला जाता था, जिन्हें पात्र मंत्री या मंत्री परिषद कहा जाता था। बोरफुकन उनमें से एक थे।

सुकुती (मोमाई-तामुली) ने बहुत कठिनाइयों का सामना किया और अपने भानजे के तहत कुल चार रुपए के लिए काम करना शुरू किया। उनका भानजा उन्हें मोमाई (मामा) कहता था। स्वर्गदेव प्रताप सिंह (1603 ईस्वी -1641 ईस्वी) को जब सुकुती की अपने काम के प्रति ईमानदारी और लगन के विषय में पता चला तो उन्होंने उसे बार-तामुली या राजकीय उद्यान निरीक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया। मोमाई तामुली तब तक उस पद पर काम करते रहे जब तक उन्हें बारबरुआ के तौर पर नियुक्त नहीं कर दिया गया, जिस पद के अधीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी तथा राज्य के मुख्य न्यायधीश के काम शामिल थे। मुगलों के साथ शुरुआती लड़ाइयों में, वे आहोम सैन्यबल के सेनापति के तौर पर नियुक्त किए गए। उनकी सतर्कता तथा बहादुरी स्वर्गदेव प्रताप सिंह के लिए एक बड़ी पूंजी थी। एक बार एक मुगल संदेशवाहक ने अपने बादशाह से कहा था, ‘‘अरे साहिब, असम के बारे में आपसे क्या कहूँ? वहाँ के राजा तो सच में महादेव हैं और मोमाई तामुली उनके मुख्य सेवक या नंदी के जैसे हैं। जब तक असम इन दोनों के हाथों में है, तब तक आपके लिए उस राज्य की ओर देखना असंभव है।” अपने काम के प्रति इस अद्भुत समर्पण, निष्ठा, तथा अपने स्वामी के प्रति सम्मान के कारण मोमाई-तामुली की शक्ति और ख्याति और बढ़ गई।

लचित ने ज़िम्मेदारी और समर्पण के ये उत्कृष्ट गुण अपने पिता से पाए थे। बहुत कम उम्र में ही लचित ने अपने पिता के सरकारी आवास में जो कुछ भी होता था, उसे देखा और सुना। एक बारबरुआ के तौर पर मोमाई-तामुली के अधीन एक अधिकारी दल कार्यरत था जो राजस्व तथा न्याय संबंधी शिकायतों पर निर्णय लेने, विदेशी अतिथियों का स्वागत करने, तथा राज्य की कूटनीतिक समस्याओं को सुलझाने जैसे राज्य-कार्यों को करने में उनकी मदद करता था।

आहोम अभिजात वर्ग के परिवारों में अपने पुत्रों की शिक्षा के लिए उपयुक्त शिक्षक को नियुक्त करना एक सामान्य बात थी। आहोम उत्कृष्ट ग्रंथों तथा हिंदू दंडनीतियों और अर्थशास्त्र पर आधारित राजनैतिक ज्ञान और राज्य के इतिहास तथा प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में शिक्षा देने वाले पंडितों और विद्वानों को नियमित रूप से नियुक्त किया जाता था। अभिजात वर्ग के परिवारों में सैन्य प्रशिक्षण, शिक्षा का एक अभिन्न अंग था। प्रत्येक अधिकारी, यहाँ तक कि न्यायधीश और पुरोहित को भी, आपातकाल में शस्त्र उठाने पड़ते थे।

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आहोम राजमहल (करेंग घर), गरगाँव। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स

लाचित ने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरूआत राज्य प्रमुख के पट्ट-वाहक के रूप में की थी, जो निजी सचिव के समतुल्य पद था। एक महत्वाकांक्षी राजनयिक व कूटनीतिज्ञ बनने की दिशा में यह उनका पहला कदम माना जाता है। एक पट्ट-वाहक के तौर पर उन्हें अपने राजा के लिए सुपाड़ी तथा महत्वपूर्ण दस्तावेजों की गठरी उठानी पड़ती थी। उन्हें राजा से मिलने तथा मंत्रिमंडल की बैठकों में भाग लेने की भी अनुमति थी। अपने संपूर्ण कार्यकाल के दौरान लचित के कई पदों पर कार्य किया। शुरुआत में वे घोरा बरुआ अथवा शाही घोड़ों के निरीक्षक के तौर पर नियुक्त हुए थे। बाद में उन्हें दोलकशारिया बरुआ अर्थात् रक्षकों के अधीक्षक के तौर पर नियुक्त किया गया। स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह (1663 ईस्वी -1670 ईस्वी) ने राजा बनने के तुरंत बाद लचित को प्रधान सेनापति और बोरफुकन नियुक्त किया।एक बोरफुकन को कार्यकारी और न्यायिक शक्तियाँ दी जाती थीं, तथा आहोम राज्य में कालियाबोर नदी के पश्चिम तक उनका अधिकार क्षेत्र होता था। बोरफुकन बंगाल और भूटान के साथ राजनयिक संबंधों को बनाए रखने के लिए भी ज़िम्मेदार होता था।

लचित बोरफुकन और सराईघाट का युद्ध


स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह ने लचित को ऐसे महत्वपूर्ण समय में आहोम सेना का सेनापति नियुक्त किया जब मुगलों व आहोम के बीच कठिन संघर्ष चल रहा था। चक्रध्वज सिंह ने अपने पूर्ववर्ती राजा, स्वर्गदेव जयध्वज सिंह, द्वारा 1663 ईस्वी में घिलझरीघाट की संधि के तहत तय की गई पूरी धनराशि मुगलों को देने से मना कर दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने लचित बोरफुकन को मुगलों से युद्ध करने के लिए सेना तैयार करने के लिए भी कहा। लचित ने 1667 ईस्वी की गर्मियों तक अपनी तैयारियाँ पूरी कर लीं, और उनकी सेना ने गुवाहाटी पर पुनः अधिकार कर लिया, जो इससे पहले मुगल सेना के अधिकार में चली गई थी। दिसंबर 1667 में मुगल बादशाह औरंगज़ेब ने गुवाहाटी को अपने अधिकार में लेने के लिए अंबर के राजा राम सिंह के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। गुप्तचरों ने राजा राम सिंह और उनकी सेना के दिल्ली से चलने की सूचना तुरंत लचित बोरफुकन को भेज दी। लचित, जो मुगल सेना की संख्या व शस्त्रबल से अवगत थे, ने गुवाहाटी को युद्ध क्षेत्र बनाने के लिए निरीक्षण आरंभ कर दिया। ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर स्थित और चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई गुवाहाटी, रणनीतिक तौर पर आहोमों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। लचित ने पाया कि अपनी सेना और संसाधनों को सुरक्षित रखने के लिए गुवाहाटी की किलेबंदी करना अनिवार्य है। राजा ने ब्रह्मपुत्र नदी के दोनों किनारों पर आवश्यक किलाबंदी करने और उनका प्रबंधन करने के लिए प्रधानमंत्री अतन बुगोहेन को नियुक्त किया। लचित बोरफुकन को यह सुनिश्चित करना था कि आक्रमण तथा युद्ध के लिए उनकी सेना सभी प्रकार से संसाधनों से युक्त हो। यहाँ तक कि उन्होंने गुवाहाटी के पास-पड़ोस के दर्रों और घाटियों का भी निरीक्षण किया। एक सेनापति के रूप में लचित बोरफुकन ने जो सतर्कता और साहस दिखाया वह अद्भुत था ।

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ब्रह्मपुत्र से गुवाहाटी नगर का दृश्य

राम सिंह की सेना में मुख्य रूप से 21 राजपूत सरदार, 4000 घुड़सवार, 1500 बादशाह के अपने घुड़सवार, और 500 तोपची थे। बंगाल से अतिरिक्त सैन्यबल मिलने के बाद उनकी सेना में 30,000 पैदल सैनिक, 18000 तुर्की घुुड़सवार, तथा 1500 तीरंदाज़ शामिल हो गए। लचित बोरफुकन को मुगल सेना की गुवाहाटी की ओर बढ़ने की सूचना मिली, और उन्होंने इस सूचना के बारे में स्वयं पड़ताल कर उनकी स्थिति के बारे में जानकारी पुख़्ता की। जनश्रुति है कि यह जानने के बाद उनकी आँखों से आँसू उनके गालों पर ढलक आए, और उन्होंने अपने आप से कहा, “यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि मेरे फुकन होने के समय में मेरे राज्य को इस भीषण विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। कैसे हमारे राजा बचेंगे, कैेसे हमारे लोग बचेंगे, कैसे हमारी आने वाली पीढ़ियाँ बचेंगी?” लेकिन उन्होंने अपना मनोबल टूटने नहीं दिया। वे अंत तक अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए दृढ़-संकल्प थे। लचित को यह पता था कि मुगलों को नौसैन्य युद्ध के विषय में कोई अनुभव नहीं था और वे इसी का लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने गुवाहाटी का निरीक्षण किया और अंधारुबली नामक एक त्रिकोणीय क्षेत्र (यह ब्रह्मपुत्र के दक्षिणी किनारे पर नीलाचल और इताखुली पहाड़ी को और उत्तरी किनारे पर अश्वक्रांता पहाड़ी को जोड़ता है) को नौसैनिक युद्ध करने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान के तौर पर चिन्हित किया। फरवरी 1669 ईस्वी में राजा राम सिंह की सेना रंगमती की सीमावर्ती सैन्य चौकी तक पहुँच गई। लचित बोरफुकन ने आक्रमणकारियों को गुवाहाटी के युद्ध क्षेत्र (निश्चित दूरी पर दुर्गों और सैन्य मोर्चों सहित, सभी ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ क्षेत्र) में लाने के लिए, तीन अधिकारियों को मनाहा नदी की ओर भेजा, ताकि उन्हें देखकर शत्रु गुवाहाटी के पास आ जाए।

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आहोम सैना की तैयारियों को दर्शाती मूर्तियाँ। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स

गुवाहाटी की किलेबंदी को और सुदृढ़ किए जाने के दौरान, लचित बोरफुकन ने इस विषय में अपने आदेशों का उल्लंघन करने वाले किसी भी व्यक्ति को क्षमा नहीं किया ।

ऐसा कहा जाता है कि लचित ने अपने सगे मामा को ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे पर अमीनगाँव के निकट एक प्राचीर के निर्माण का दायित्व दिया था। उनके मामा निर्दिष्ट समय सीमा में वह कार्य पूर्ण नहीं कर पाए थे। क्रोधित लचित ने इस गैरज़िम्मेदार रवैये के लिए अपने मामा को मृत्युदंड दिया। उनके शब्द ‘‘मेरे मामा मेरे देश से बड़े नहीं हैं’’, देश के प्रति उनकी प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं।

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सराईघाट के युद्ध क्षेत्र का मानचित्र। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स

1670 ईस्वी में, चक्रध्वज सिंह की मृत्यु के बाद स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह राजगद्दी पर बैठे। 1671 ईस्वी में राजा राम सिंह के नेतृत्व में मुगल सेना, नौसैनिक बेड़े के साथ ब्रह्मपुत्र नदी के मार्ग से गुवाहाटी पहुँची। सघन किलेबंदी के कारण सड़क मार्ग का प्रयोग करने में असमर्थ मुगल सेना को गुवाहाटी में प्रवेश करने के लिए नदी मार्ग का उपयोग करना पड़ा था। जैसे ही वे अंधारुबली पर उतरने वाले थे, आहोम सेना के पैदल सिपाहियों और नौसेनिकों को मुगलों पर आक्रमण करने का आदेश मिला। जब मुगल गुवाहाटी में प्रवेश कर रहे थे, लचित बोरफुकन रोगग्रस्त हो शैय्यासीन थे। वे इटाखुली पहाड़ी पर अपने बुर्ज से शत्रुओं की प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि बनाए हुए थे। उन्होंने देखा कि आहोम सेना मुगलों की विशाल सेना के सामने साहस खोते हुए पीछे हटने लगी। वे तुरंत छह युद्धपोतों के साथ अपनी नाव पर सवार हुए, और नौसैन्य युद्धस्थल की ओर चल पड़े। बोरफुकन ने चिल्लाकर कहा, ‘‘महाराज ने मुझे यहाँ सेना की सर्वोच्च कमान दी है और संसाधनों के विशाल भंडार का भी प्रबंध किया है ताकि हम शत्रु के साथ युद्ध कर सकें। क्या हमें अब युद्ध छोड़कर अपनी पत्नियों और बच्चों की ओर लौट जाना चाहिए? मेरे आदेश के बिना इन दासों ने अपने नाविक बेड़ों को लौटाने का साहस कैसे किया!’’ अपने सेनापति के क्रोध को देखकर आहोम सेना ने नए साहस और आत्मविश्वास के साथ वापस लौटने और शत्रु से युद्ध करने का निश्चय किया। अप्रतिम साहस और दक्ष रणनीतियों के साथ अंततः उन्होंने पांडु बंदरगाह के पास नदी के दक्षिणी तट पर, सराईघाट के पास मुगलों को पराजित किया। मुगल सेना को गुवाहाटी से पीछे हटना पड़ा। आहोम सेना ने मुगल सेना का मानस नदी तक पीछा किया, जो आहोम राज्य की पश्चिमी सीमा पर स्थित थी।

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सराईघाट, गुवाहाटी

युद्ध के अंत में, राजा राम सिंह ने, आहोम सेना के साहस और कौशल की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘प्रत्येक असमिया सैनिक नाव खेने, तीर चलाने, खाईयाँ खोदने, तथा बंदूक और तोप चलाने में दक्ष है। मैंने भारत के किसी भी अन्य हिस्से में इस प्रकार की बहुमुखी प्रतिभा का उदाहरण नहीं देखा है।’’ लचित के पराक्रम और उनकी सतर्कता से तो विस्मित होकर उन्होंने कहा, ‘‘राजा की जय! सलाहकारों की जय! सेनापतियों की जय! राज्य की जय! मात्र एक अकेला व्यक्ति सभी सैन्यबलों का नेतृत्व करता है। यहाँ तक कि मैं, राम सिंह, स्वयं इस स्थान पर उपस्थित होने के बाद भी बचने का कोई मार्ग या अवसर नहीं पा सका।”

सराईघाट की लड़ाई में आहोम सेना की विजय की खुशी युद्ध के तुरंत बाद लचित बोरफुकन की मृत्यु की सूचना के साथ काफूर हो गई। हालाँकि युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व करते समय ही उन्हें तीव्र ज्वर था, किंतु यह उनका आद्वितीय समर्पण तथा राष्ट्रभक्ति ही थी जिसने उन्हें अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु शत्रुओं से युद्ध करते रहने की शक्ति दी थी। बोरफुकन की मृत्यु 1672 में जोरहाट के होलोंगपार में हुई। 1672 में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह ने अपने प्रसिद्ध सेनापति के सम्मान और स्मृति में हुलुंगपारा में लचित मैदान का निर्माण किया।

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सराईघाट के युद्ध को दर्शाती मूर्ति। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स

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लचित मैदान, जोरहाट। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स

गुवाहाटी में एक पाषाण-स्तंभ मिला है जिसमें संस्कृत में लिखा है, ‘‘अनेक प्रकार के युद्धास्त्रों, हाथियों, घोड़ों, और सेनानायकों से युक्त यवनों [मुसलमानों] के ऊपर भारी विजय प्राप्त करने के बाद, शक संवत् 1589 [1667 ईस्वी] में नामजानी (निचला असम) के बारबरुआ के पुत्र बोरफुकन यहाँ गौरव के साथ रहे। बोरफुकन का शरीर सभी प्रकार के अलंकरणों से सुशोभित है, और इनका हृदय विभिन्न प्रकार के ज्ञान के वैभव से प्रदीप्त है। वे आकर्षक गुणों से युक्त और कलियुग की समस्त बुराइयों से मुक्त हैं। वे अपने साहस, वीरता, और कौशल से जगमगाते हैं, तथा हाथी, घोड़ों, और सैनिकों के सेनाध्यक्ष हैं। वे पौरुष, आत्म सम्मान, वीरता, तथा परख और गंभीरता की गहराई के उच्चतम गुणों के भंडार हैं।”

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सराईघाट के नौसैन्य युद्ध को दर्शाती मूर्ति। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स