चित्तू पांडेय
सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गांधीजी और कांग्रेस के प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारी एक प्रमुख घटना थी, जिसके परिणामस्वरूप इस आंदोलन को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी भारतीय जनता पर आ गई थी। गांधीजी के ‘करो या मरो’ मंत्र से प्रेरणा पाकर, स्थानीय नेताओं ने सरकारी इमारतों पर भारतीय ध्वज फहराने की कोशिश की जिसमें कई नेताओं पर गोलियाँ चलाकर उन्हें मार दिया गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में बलिया की ज़िला कांग्रेस समिति के प्रमुख चित्तू पांडेय, एक भारतीय व्यक्ति श्री जगदीश्वर निगम की मदद से यह बहादुरी का काम करने में सफल रहे। श्री जगदीश्वर निगम ब्रिटिश भारतीय लोक सेवा के एक अधिकारी थे। श्री निगम उस समय बलिया के ज़िला मजिस्ट्रेट थे और उन्होंने भारतीय जनता को सत्ता सौंपने और रक्तपात को समाप्त करने की योजना बनाई थी।
जब 9 अगस्त को कांग्रेस नेताओं की गिरफ़्तारी की खबर बलिया पहुँची, सभी विद्यालय और दुकानें बंद कर दी गईं और लोग देशभक्ति के गीत गाते हुए सड़कों पर उतर आए। कुछ ऐसी छिटपुट घटनाएँ हुईं जिनमें स्थानीय लोगों ने ब्रिटिश सत्ता के प्रतीकों पर हमला किया, जिनमें बेलथरा रोड रेलवे स्टेशन, रसड़ा कोषागार, पानी के पंप, पानी के टैंकर, पुलिस थाने, डाकघर, संचार माध्यम और विदेशी कपड़े बेचने वाली दुकानें शामिल थीं। एक मालगाड़ी को भी लूट लिया गया था और बाँसडीह में स्थित तहसील मुख्यालय पर कब्ज़ा कर लिया गया था। डिप्टी मजिस्ट्रेट श्री कक्कड़ ने आदेशों का उल्लंघन किया और गोलियाँ चलाकर लगभग 25 लोगों को मार दिया।
राष्ट्रीयता के प्रति गहरा झुकाव रखने वाले ज़िला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर श्री जगदीश्वर निगम ने, जो एक आईसीएस (भारतीय लोक सेवा) अधिकारी थे, परिस्थिति की संवेदनशीलता को समझते हुए, ब्रिटिश सरकार के आदेश पर चित्तू पांडेय सहित अन्य नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन 19 अगस्त, 1942 को श्री निगम ने चित्तू पांडेय को बिना किसी शर्त के रिहा करने का आदेश जारी कर दिया। ऐतिहासिक दस्तावेज़ यही बताते हैं कि यह एक सुनियोजित योजना थी। श्री निगम और पुलिस अधीक्षक रियाज़ अहमद खान ने चित्तू पांडेय को कलेक्ट्रेट तक सुरक्षित पहुँचाया। श्री निगम ने ब्रिटिश ध्वज को पूरे सम्मान के साथ नीचे उतारा और चित्तू पांडेय को कलेक्ट्रेट पर भारत का प्रथम ध्वज फहराने की अनुमति दी। फिर उन्होंने सत्ता का अधिकार चित्तू पांडेय को सौंप दिया। इस प्रकार, भारत छोड़ो आंदोलन की उथल-पुथल के बीच 19 अगस्त, 1942 को सत्ता का अधिकार एक ब्रिटिश प्रशासक द्वारा बलिया के स्थानीय लोगों को दे दिया गया। चित्तू पांडेय को सत्ता प्रमुख बनाया गया। इस प्रकार, बिना किसी खून-खराबे के भारत का ध्वज स्वतंत्र हवा में लहराया गया और बलिया अल्पावधि के लिए एक गणतंत्र बना। देशभक्ति गीतों के साथ ‘राष्ट्रवादी निगम’ और चित्तू पांडेय का यशगान करते हुए नारे आसमान में गूँज उठे।
बलिया में जो 40,000 लोग एकत्रित हुए थे, वे इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी बने। वे इस बात से अवगत थे कि ज़िला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर श्री निगम ने, ब्रिटिश सरकार के ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश की अवज्ञा करते हुए, पुलिस को अपने हथियार नीचे रख देने और “अपनी बंदूकों को जमा कर देने” के आदेश दिए थे।
चित्तू पांडेय के नेतृत्व वाली समानांतर सरकार ने नागरिक प्रशासन के सुचारु संचालन की व्यवस्था की। विभिन्न इलाकों के लिए अलग-अलग पंचायतें स्थापित की गईं। शहर की सुरक्षा हेतु कांग्रेस कर्मचारियों को नियुक्त किया गया। दस में से सात पुलिस थानों के क्षेत्र इस सरकार के नियंत्रण में आ गए थे। लेकिन, यह सरकार अधिक समय तक कायम नहीं रह पाई। श्री निगम यह बात जानते थे कि ब्रिटिश सैन्य दल “बलिया पर दोबारा कब्ज़ा करने के लिए” ज़रूर बलिया पर हमला करेगा, और इसीलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि चित्तू पांडेय और उनके साथी उस दल के वहाँ पहुँचने से पहले भूमिगत हो जाएँ।
22 अगस्त की रात को ब्रिटिश सैन्य दल ने बलिया में घुसकर वहाँ की लोक-सम्मत सरकार का तख्ता पलट कर दिया। इसके बाद ब्रिटिश सेना ने नेताओं की गिरफ़्तारियों, जुर्मानों और दीर्घकालिक जेल अवधियों के रूप में इस आंदोलन का कठोर दमन किया। श्री निगम अपने राष्ट्रवादी रवैये पर कायम रहे और चूँकि उन्होंने इस्तीफ़ा देने से इनकार कर दिया था, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। लंबी कानूनी लड़ाई जीतने के बाद सन् 1948 में उन्हें फिर से नियुक्त कर दिया गया।
बलिया से अंग्रेज़ों का नियंत्रण किस हद तक खत्म कर दिया गया था, इस बात का अंदाज़ा प्रभारी ब्रिटिश अफ़सर द्वारा संयुक्त प्रांत (यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़) के राज्यपाल, मॉरिस हैलेट को भेजे गए एक तार से लगाया जा सकता है जिसमें लिखा था - ‘बलिया दोबारा जीत लिया गया है’। वहाँ के लोगों के साहसी कार्यों और बलिदानों के कारण बलिया का नाम ‘क्रांतिकारी बलिया’ पड़ा। इतिहास में चित्तू पांडेय को ‘शेर-ए-बलिया’ के नाम से जाना गया जबकि ज़िला मजिस्ट्रेट श्री जगदीश्वर निगम ‘राष्ट्रवादी निगम’ के रूप में जाने जाते हैं। उनके खुद के शब्दों में उन्होंने ‘कलम की धार को तलवार की धार से श्रेष्ठ’ साबित किया था।
- इस लेख के कुछ भाग, श्रीमती शीला दरबारी, डॉ. जेनिस दरबारी और डॉ. राज दरबारी द्वारा रचित किताब “द रियल स्टोरी : दी एडमिनिस्ट्रेटर जगदीश्वर निगम (आई.सी.एस) वर्सेस द ब्रिटिश राज 19 अगस्त 1942” से लिए गए हैं