वासुदेव बलवन्त फड़के
भारतीय सशस्त्र विद्रोह के जनक
वासुदेव बलवन्त फड़के भारत के शुरूआती क्रांतिकारियों में से एक थे और उन्हें ‘भारतीय सशस्त्र विद्रोह के जनक’ के रूप में भी जाना जाता है। उनका जन्म 04 नवंबर 1845 को शिरधों (वर्तमान महाराष्ट्र) में बलवंतराव और सरस्वतीबाई के घर हुआ था। उनके दादाजी, अनंतराव, 1818 में कर्नाला किले पर अंग्रेज़ों का कब्जा होने तक, कर्नाला किले के कमांडर थे। 1859 में वासुदेव फड़के का विवाह सईबाई से हुआ और उनके एक बेटी हुई जिसका नाम मथुताई रखा गया। फड़के ने 1862 में मुंबई विद्यापीठ से स्नातक की शिक्षा पूरी की और फिर अलग-अलग सरकारी संस्थाओं में काम किया। 1865 में उन्हें पुणे के सैन्य वित्त कार्यालय में नौकरी मिली। ऐसा कहा जाता है कि जब फड़के की माँ मृत्युशय्या पर थीं, तब उन्होंने अपनी माँ के पास जाने के लिए छुट्टी की दरखास्त की, लेकिन कुछ सालों तक सरकार की सेवा करने के बावजूद भी उन्हें छुट्टी नहीं दी गई। इससे जवान वासुदेव का खून खौल उठा और उन्होंने अधिकारियों को उनकी इस हरकत पर खूब धिक्कारा। एक साल बाद उनकी छुट्टी फिर से अस्वीकृत की गई जिसके कारण वे अपनी माँ की पुण्यतिथि में नहीं जा पाए। फड़के अंदर-ही-अंदर सुलग रहे थे और इसके कारण अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ़ उनका संकल्पऔर सुदृढ़ हो गया।
1872 में फड़के की पत्नी सईबाई एक अल्पकालिक बीमारी के बाद चल बसीं। एक साल बाद उनका विवाह गोपिकाबाई से हुआ। तत्कालीन समाज के नियमों के खिलाफ़ जाकर उन्होंने गोपिकाबाई को घुड़सवारी और तलवारबाज़ी जैसे कौशलों के साथ-साथ पढ़ना-लिखना भी सिखाया। पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों में औपनिवेशिक शासन की आलोचना करने वाले लेख और दादाभाई नौरोजी और.महादेव गोविंद रानाडे (जिन्होंने 1870 के दशक में पूना सार्वजनिक सभा का नेतृत्व किया) जैसे नेताओं के भाषण, फड़के के लिए प्रेरणा के स्रोत थे। फड़के कई मायनों में प्रवर्तक थे। गाँव-गाँव जाकर स्वराज के मंत्र का प्रचार करने वाले और विदेशी शासन के खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने वाले वे पहले भारतीय नेता थे। फड़के ने पूरे पुणे में सार्वजनिक भाषण देना और लोगों को संगठित करना शुरू किया। उनका उद्देश्य अपने श्रोताओं के साथ भावनात्मक रिश्ता बनाना और उनमें देशभक्ति की भावना जगाना था। फड़के अंग्रज़ों के खिलाफ़ सख्त क्रांतिकारी कार्यवाही करना चाहते थे और नेताओं द्वारा समर्थित अंग्रेज़ी सरकार को याचिकाएँ और प्रार्थना पत्र देने के पक्ष में नहीं थे।
1870 के दशक के अंत में दक्खन का अकाल, सरकार की राजस्व माँग में हुई वृद्धि, विफल राहत कार्यों के कारण लोगों की और खराब होती स्थिति, जैसे अन्य कारकों के कारण फड़के की उपनिवेश-विरोधी भावनाएँ और मज़बूत हो गईं। 1879 में फड़के ने गोपाल हरि कर्वे, विष्णु गद्रे, गणेश देवधर और अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर भारत की सबसे पहली क्रांतिकारी सेनाओं में से एक का गठन किया। उनका उद्देश्य अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं के एक सुनियोजित दल का निर्माण करना था। ऐसा माना जाता है कि अकाल के कारण हुई तबाही को देखकर उन्हें सशस्त्र क्रांति की आवश्यकता महसूस हुई। 1886-87 के बीच महाराष्ट्र में भीषण अकाल के दौरान उनके दल ने सरकार की आर्थिक नीतियों की निंदा करते हुए घोषणापत्र जारी किया और अंग्रेज़ों को सख्त कार्यवाही की चेतावनी दी। सक्रिय कार्यकर्ता दल के ज़रिए भारतीयों पर अत्याचार करने वालों से लड़ने का उनका संकल्प और उनकी राष्ट्रवादी भावनाएँ, कई लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं।
इस दल का प्रयास था अंग्रेज़ों से गुरिल्ला युद्ध प्रणाली की मदद से लड़ने के लिए धन और शस्त्र इकट्ठा करना। धन इकट्ठा करने के लिए फड़के के दल ने मुंबई के आसपास और बाद में कोंकण क्षेत्र में लूट-मार के साहसिक अभियानों को अंजाम दिया। उन्होंने अपने लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिए अविरत मेहनत की और अलग-अलग गतिविधियों को कार्यान्वित करने के लिए लोगों के छोटे-छोटे समूह बनाए। एक समूह लोगों के बीच देशभक्ति के ऐसे गीत गाता था जिनमें जनसाधारण का दर्द झलकता था; दूसरा समूह गुप्त बैठकों के ज़रिए विद्यालय के छात्रों को संगठित करता था, जबकि मुख्य समूह सरकार को चुनौती देने के लिए विविध गतिविधियों की योजना बनाता था। इन गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ अधिकारियों को ख़तरा महसूस हुआ और उन्होंने फड़के की तलाश शुरू की। फड़के को जुलाई 1879 में बीजापुर ज़िले के देवर नावड़गी गाँव से गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। उन्होंने कैदखाने से भागने की कोशिश की। परंतु उनकी योजना विफल हो गई और उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। 1883 में फड़के का कैदखाने में ही निधन हो गया। फड़के ने अपने छोटे-से जीवनकाल में, भारत की आज़ादी के लिए लड़कर एक व्यवस्थित सशस्त्र आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया।