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बाराबती का अमर शौर्य

ओडिशा राज्य, जिसे कलिंग, उत्कल या उद्र के नाम से भी जाना जाता है, गंग, गजपति, भोई, मुगल, और मराठा जैसे कई प्रसिद्ध राजवंशों के शासन के अधीन रहा है। इन शक्तियों द्वारा अपने पीछे छोड़ी गई वास्तुकला की विरासत बहुत समृद्ध और विविध है। हालांकि, इस यौगिक विरासत के तत्व आज अपने विशुद्ध प्राचीन रूप में मौजूद नहीं हैं। वर्तमान समय के ओडिशा के कटक शहर में स्थित बाराबती का किला एक ऐसी ही ऐतिहासिक संरचना है, जो एक बीते हुए युग की महिमा को दर्शाती है।

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बाराबती किले का प्रवेशद्वार

बाराबती का इतिहास कटक शहर के इतिहास के साथ जटिल रूप से जुड़ा हुआ है। शब्द "कटक" स्वदेशी शब्द कटका का अंग्रेज़ी संस्करण है जिसका अर्थ है एक सैन्य छावनी या एक राजधानी शहर। कटक सामरिक रूप से महानदी और कथाजोड़ी नदियों के बीच स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि कटका दो ऐतिहासिक व्यापार मार्गों के चौराहे पर स्थित था, जिससे इस जगह के आर्थिक महत्व और समृद्धि में वृद्धि हुई थी। इस शहर ने 10वीं शताब्दी से राजनीतिक महत्व हासिल करना शुरू किया जब सोमवंशी राजवंश ने इसे सैन्य छावनी के रूप में विकसित किया था। राजा अनंतवर्मन चोडगंग ने 12वीं शताब्दी में सोमवंशियों को उखाड़ फेंका और पूर्वी गंग वंश की नींव रखी और कटक में अपनी राजधानी स्थापित की। इतिहासकारों का मानना ​​है कि यह पूर्वी गंग राजवंश के राजा अनंगभीमदेव तृतीय थे, जिन्होंने 13वीं शताब्दी की शुरुआत में बाराबती का किला बनवाया था। यह किला पूर्वी गंग राजवंश के शाही केंद्र के रूप में उभरा, जिसके राजाओं ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण और साथ ही आर्थिक रूप से समृद्ध इस क्षेत्र पर शासन किया। गंग राजाओं के बाद, यह किला कई प्रमुख शक्तियों जैसे बंगाल के अफगान शासकों, मुगलों, मराठों और अंत में अंग्रेज़ो के कब्जे में आ गया था। प्रारंभिक आधुनिक काल में इस किले का राजनीतिक महत्व अच्छी तरह से जारी रहा मगर इसके बाद इसे अंग्रेज़ो के अधीन उपेक्षा और क्षय का सामना करना पड़ा।

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किले के खंडहर

हालाँकि, किंवदंती इस किले की उत्पत्ति की एक अलग ही कहानी बताती है। मदलापंजी, पुरी के जगन्नाथ मंदिर के तिथि-ग्रंथ, के अनुसार, किले की नींव वर्ष 989 ईस्वी में पड़ी थी। यह इस किले की उत्पत्ति के इर्द गिर्द एक दिलचस्प कहानी भी सुनाता है। ऐसा कहा जाता है कि राजा अनंगभीमदेव तृतीय, जो उस समय चौदुआर से शासन कर रहे थे, एक बार महानदी नदी को पार करके बाराबती गाँव में आ उतरे। यह कहा जाता है कि यहाँ उन्होंने एक बहुत ही असामान्य घटना देखी- एक बगुला (एक मछली खाने वाला पक्षी) एक बाज पर हावी था। राजा ने इसे एक शुभ संकेत माना और अपनी राजधानी को कटक में स्थानांतरित करने का फैसला किया और उन्होंने यहाँ बाराबती किले को अपने मुख्यालय के रूप में बनाया।

बाराबती किला, आज, भौतिक रूप से अपने गौरवशाली अतीत की छाया मात्र ही है। वर्तमान में खड़ी संरचना में एक धनुषाकार प्रवेश द्वार, एक खाई (खंदक), और वास्तुशिल्प अवशेषों के साथ एक केंद्रीय टीला शामिल है। खंडहर बन जाने के बावजूद, अवशेष अभी भी अतीत में एक भव्य परिसर के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। कहा जाता है कि बाराबती शब्द बाराहाती शब्द से लिया गया है जिसमें बारा का अर्थ 12 है और हाती भूमि माप की एक स्थानीय इकाई का प्रतिनिधित्व करता है। बाराहाती या 12 हातियाँ लगभग 102 एकड़ के क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है। संरचना की योजना आकार में चौकोर है। दीवारों (अब अस्तित्व में नहीं) को घेरने वाली खाई में पत्थर लगा हुआ है और कुछ स्थानों पर यह लगभग 20 मीटर चौड़ी है। खाई को गडखाई के नाम से भी जाना जाता है। इस किले को 1915 में एक एएसआई संरक्षित स्मारक के रूप में घोषित किया गया। एएसआई की अध्यक्षता में 1989 में स्थल पर खुदाई शुरू की गई थी। इसके दौरान, किले के परिसर के केंद्रीय टीले के क्षेत्र में एक महल के अवशेषों का पता चला- जिसमे मंडप और खोंडोलाइट से बने हुए नींव के पत्थर मिले थे।

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किले में किया गया जीर्णोद्धार कार्य

बाराबती किले के सबसे व्यापक रूप से चर्चित पहलुओं में से एक है नवताल प्रसाद या 9 मंजिला महल का अस्तित्व। ऐसा माना जाता है कि सूर्यवंशी राजा बाहुबलेंद्र मुकुंददेव, जिन्होंने 16वीं शताब्दी के मध्य में ओडिशा पर शासन किया था, ने नवताल प्रसाद का निर्माण करवाया था। यह इस क्षेत्र के विषय में उल्लेख करने वाले मुगल शाही इतिहासकार अबुल फ़ज़ल के वृत्तांत आईन-ए-अकबरी द्वारा अभिप्रमाणित है। अबुल फ़ज़ल ने नवताल प्रसाद में स्थानों की रचना एवं व्यवस्थापन का बहुत विस्तृत विवरण दिया है। उनके वृत्तांत के अनुसार, किले के निचले स्तर पर सैनिकों, नौकरों और अर्दलियों के रहने का स्थान था, जबकि ऊपरी मंजिलों में शाही परिवार और उच्च पद के लोग रहते थे। हालांकि, कई इतिहासकारों का यह भी दावा है कि नवताल प्रसाद वास्तव में एक ऐसी संरचना थी जिसमें एक दूसरे के ऊपर खड़ी 9 मंजिलों के बजाय नौ बड़े आंगनों को मिलाकर पंक्तियों में क्षैतिज रूप से व्यवस्थित किया गया था। यह दावा अबुल फज़ल के द्वारा महल का वर्णन करने के लिए उपयोग किए गए नौ आशियाना शब्द पर आधारित है।

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नवताल प्रसाद के अवशेष

मुकुंददेव के शासन के समाप्त होने के बाद, ओडिशा पर, बंगाल के अफगान राजा, सुलेमान कर्रानी के सेनाध्यक्ष कालापहाड़ द्वारा आक्रमण किया गया था। कालापहाड़ का आक्रमण इस क्षेत्र के लोगों की यादों में एक विनाशकारी घटना के रूप में बसा है। बाराबती भी अफगान सेनाओं के कब्जे में आ गया, लेकिन उसे कोई नुकसान नहीं पहुँचा था। कालापहाड़ के आक्रमण के बाद, उड़ीसा बंगाल की सल्तनत में शामिल हो गया था। हालाँकि, अफगानों को जल्द ही मुगलों द्वारा बेदखल कर दिया गया, जिसके बाद में इस क्षेत्र पर मुगलों ने शासन किया था।

मुगलों के शासनकाल के दौरान, किले में कुछ नए निर्माण किए गए थे। किले के परिसर के पूर्वी हिस्से में एक मस्जिद बनाई गई थी। 18वीं शताब्दी के मध्य तक, ओडिशा का क्षेत्र नागपुर के मराठों (भोंसलों) के नियंत्रण में आ गया। मराठों के अधीन, यह क्षेत्र अंग्रेज़ो के साथ वाणिज्यिक विनिमय के केंद्र के रूप में समृद्ध हुआ। अंग्रेज़ व्यापारी थॉमस मोटी ने 1766 में कटक का दौरा किया और यह दर्ज किया कि बाराबती किले के बाहर की खाई की गहराई लगभग 7 फीट और चौड़ाई 20 फीट थी। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि किले को, किलेबंदी की आंतरिक और बाहरी दीवारों के दो समूहों द्वारा, संरक्षित किया गया था।

1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद, अंग्रेज़ो को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी या राजस्व अधिकार प्राप्त हुए। परंतु, अंग्रेज़ संतुष्ट नहीं थे और वे भारत में अपने शासन के अधीन क्षेत्र में इस क्षेत्र को भी पूर्ण रूप से मिला लेना चाहते थे। उन्होंने अंततः 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक इस क्षेत्र पर कब्जा कर ही लिया। 1803 में, कर्नल हारकोर्ट के अधीन अंग्रेज़ी सेना बाराबती किले में घुस गई और मराठा सेना को हरा दिया। इस लड़ाई का लेखा-जोखा एक अंग्रेज़ी सैनिक द्वारा लिखे गए पत्र में पाया जा सकता है। वह बाराबती किले को उच्च प्राचीर, कई मीनारों और गहरी खाई से युक्त दुर्जेय संरचना के रूप में वर्णित करता है।

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दीवारों और प्रवेशद्वार के अवशेषों का दृश्य

अंग्रेज़ी कब्जे के बाद, राजनीतिक कैदियों को रखने के लिए इस संरचना को जेल में बदल दिया गया था। हालांकि, यह किला जल्द ही उपयोग में आना बंद हो गया, और इससे इसके विध्वंस और उपेक्षा के युग के लिए रास्ता बना। अंग्रेज़ो ने किले के पत्थर और अन्य सामग्रियों का उपयोग कटक शहर में सड़क, पुल और तटबंध जैसे कई सार्वजनिक कार्यों के निर्माण के लिए किया था। यद्यपि श्रीमान शोर नामक अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट द्वारा 1856 में संरक्षण का प्रयास किया गया, लेकिन पहले से ही बहुत अधिक क्षति हो चुकी थी और इस वजह से बहुत ज़्यादा बचाव नहीं किया जा सका।

इस तथ्य के बावजूद कि किले ने अपनी प्रमुखता और प्रभुता खो दी थी और यह बर्बादी की ओर अग्रसर था, कटक शहर फलता-फूलता रहा और यह इस क्षेत्र के राजनीतिक और व्यावसायिक जीवन का केंद्र बना रहा। अंग्रेज़ो के अधीन, कटक शहर को एक राजनीतिक और शहरी केंद्र के रूप में विकसित किया गया था और यह महत्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्रों, शैक्षणिक संस्थानों, बाजारों, आदि, का गढ़ बन गया था। स्वतंत्रता के लिए हमारे संघर्ष के दौरान यह शहर राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र भी रहा था। 1948 में भुवनेश्वर के उड़ीसा राज्य की राजधानी घोषित होने तक यह शहर इस क्षेत्र का राजनीतिक मुख्यालय बना रहा था।

बाराबती खेल (स्पोर्ट्स) स्टेडियम के लिए भी प्रसिद्ध है, जिसका निर्माण 1958 में ऐतिहासिक किले के ठीक बगल में किया गया था। यह मुख्य रूप से क्रिकेट टूर्नामेंट के लिए उपयोग किया जाता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक प्रसिद्ध मैदान है। किले के पास एक अन्य प्रमुख स्थल बाली यात्रा मैदान है, जहाँ बाली यात्रा का वार्षिक आयोजन किया जाता है, जो प्राचीन ओड़िया व्यापारियों और मल्लाहों की याद दिलाता है जो व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिए बाली, जावा और सुमात्रा जैसी जगहों की यात्रा करते थे।

बाराबती के किले की भौतिक संरचना आज खंडहर में तब्दील हो चुकी है। परंतु, काल का विध्वंस इसके सीने में दबी धरोहर की महिमा को कम नहीं कर पाया है। ओडिशा के लोगों के दिलों में बाराबती की गौरवशाली विरासत पूरी तरह जीवित और सुरक्षित है। इस लिहाज से यह वास्तव में एक अमर स्मारक है।

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आधारशिलाओं और स्तंभों के अवशेष