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दौलताबाद का किला : समृद्धि और सत्ता का गढ़

अपने नाम के अनुरूप, दौलताबाद का किला अपनी समृद्ध विरासत और परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। ‘‘दौलताबाद’’ शब्द का अर्थ, “समृद्धि का गढ़” है। इस किले और क्षेत्र का यह नाम, यहाँ की चिरस्थायी समृद्धि, रणनीतिक अवस्थिति, और, इन कारणों से, दक्कन के राजनैतिक इतिहास में इसके महत्व के कारण पड़ा था।

महाराष्ट्र राज्य में स्थित इस दुर्जेय पहाड़ी किले का निर्माण, औरंगाबाद की प्रसिद्ध एलोरा की गुफ़ाओं के पास हुआ था। इस किले का निर्माण यादव राजा भिल्लम पंचम ने 11वीं शताब्दी ईस्वी में करवाया था। वर्तमान में यह किला जहाँ स्थित है, वह स्थान पहले देवगिरि के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ है, ‘‘देवताओं की पहाड़ी’’। किले के आसपास बसा शहर भी समय के साथ इसी नाम से जाना जाने लगा। ‘‘देवगिरि’’, इस जगह का सटीक नाम है, क्योंकि इस पहाड़ी के चारों ओर जैन, बुद्ध, और हिंदू देवताओं के मंदिर थे।

दौलताबाद किले, पहाड़ी, और आसपास के क्षेत्र का एक सामान्य दृश्य
छवि स्रोत : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण।

राजनैतिक विकास

सुल्तानों के आक्रमणों और लूटमार का शिकार हुआ। ऐसा सबसे पहले, अलाउद्दीन खलजी के शासनकाल में हुआ था। उसके बाद, इस किले पर तुगलकों का राज्य स्थापित हो गया। इस क्षेत्र के रणनीतिक महत्व और समृद्धि के कारण, 14वीं शताब्दी ईस्वी में मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से बदलकर, देवगिरि स्थानांतरित की थी। उन्होंने इस शहर का नाम बदलकर दौलताबाद रखा था, जिसका अर्थ है, ‘‘समृद्धि का गढ़’’। लगभग एक दशक तक, दौलताबाद उनकी राजधानी बना रहा। हालाँकि, यह महत्वाकांक्षी योजना उनकी कल्पना के अनुसार नहीं चल पाई। इस स्थानांतरण के बाद, साम्राज्य की पूर्वी और उत्तर-पश्चिमी सीमाओं में अशांति फैलने लगी। स्थिति और भी बिगड़ने लगी, जब दौलताबाद क्षेत्र में एक गंभीर जल-संकट पैदा हो गया। अंततः, सुल्तान को अपनी राजधानी वापिस दिल्ली स्थानांतरित करनी पड़ी। इस स्थानांतरण की विफलता और उनकी प्रजा के कष्टदाई अनुभव के कारण, सुल्तान को ‘पागल राजा’ की उपाधि मिल गई।

कई सरदारों ने मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ़ विद्रोह छेड़ दिए थे, जिनके अंत में, हसन गंगू के नेतृत्व में, दौलताबाद पर बहमनी शासकों का अधिकार स्थापित हो गया। 1499 ईस्वी तक बहमनी राज्य के पतन के बाद, अहमदनगर के निज़ाम शाहियों ने दौलताबाद पर कब्ज़ा करके इसे अपना एक महत्वपूर्ण राजनीतिक केंद्र बना लिया। 1633 ईस्वी में चार महीनों तक चली घेराबंदी के बाद, दौलताबाद पर मुगलों ने कब्ज़ा कर लिया। बल्कि औरंगज़ेब ने बीजापुर और गोलकुंडा के विरुद्ध अपने अभियान, दौलताबाद से ही चलाए थे। 1724 ईस्वी में हैदराबाद के निज़ामों के कब्ज़े से पहले, यहाँ थोड़े समय के लिए मराठों का शासन भी रहा। आज़ादी के बाद, यह किला भारत सरकार के नियंत्रण में आ गया।

वास्तुकला

दौलताबाद भारत के सबसे शक्तिशाली मध्ययुगीन किलों में से एक माना जाता है। इस किले का निर्माण, 200 मीटर ऊँची शंक्वाकार ग्रेनाइट की चट्टानों पर हुआ था। लगभग 100 एकड़ में फैले इस किले के परिसर में, वास्तुकला, सैन्य अभियांत्रिकी, नगर-नियोजन, तथा जल-प्रबंधन व्यवस्था के उत्कृष्ट उदाहरण देखने को मिलते हैं। इस किले का निर्माण अनेक चरणों में हुआ और कई शताब्दियों तक चला। यादवों द्वारा निर्मित इस किले की प्रारंभिक संरचना में, एक चिकनी ऊर्ध्वाकार सतह तैयार करने के लिए एक विषम पहाड़ी को काटा गया था, जिससे उनकी अद्भुत वास्तुशिल्पीय क्षमताओं का प्रमाण मिलता है। हालाँकि, किले के वर्तमान ढाँचे की अधिकांश संरचनाएँ, अहमदनगर सल्तनत के शासनकाल में बनवाई गई थीं।

उस शंक्वाकार पहाड़ी की चोटी का एक दृश्य, जहाँ दौलताबाद किले का निर्माण हुआ था। छवि स्रोत : फ़्लिकर।

किले की रक्षात्मक वास्तुकला और योजना इसके मुख्य आकर्षण हैं। इनमें किलेबंद दीवारें, पैदल मार्ग, खंदक, लोहे की कीलों वाले द्वार, गढ़, और बुर्ज शामिल हैं। किले की सबसे बाहरी किलेबंदी का नाम ‘अंबरकोट’ है। ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण मलिक अंबर ने करवाया था, जो एक निज़ाम शाही हाकिम और हबशी गुलाम थे, और उन्होंने सेनाध्यक्ष और राज्य मंत्री के तौर पर ख्याति और शक्ति हासिल की थी। यह एक 14 किलोमीटर लंबी दीवार है, जिसमें लगभग 45 बुर्ज तथा 9 द्वार हैं, और कहा जाता है कि इसमें नगर की पूरी आबादी समा सकती थी। ‘अंबरकोट’ को भेदने में सफल होने पर, आक्रमणकारियों को अगली किलेबंदी, ‘महाकोट’ का सामना करना पड़ता था। यह एक 5 किलोमीटर लंबी किलाबंदी है, जिसमें दीवारों की चार परतें और लगभग 54 बुर्ज हैं। किले की अगली रक्षात्मक किलेबंदी का नाम ‘कालकोट’ है और यह पहाड़ की तलहटी पर स्थित है। इस किलेबंदी में चट्टानों को तराशकर बनाई गई एक गहरी खाई है, जो किले के पश्चिमी भाग, मोटी और चौड़ी दीवारों वाले गलियारों, तथा रणनीतिक रूप से स्थित गढ़ों, और बुर्जों को घेरती है। किले की योजना लंबे समय तक चलने वाली घेराबंदियों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, जिसके कारण इसमें बड़े भंडारण-क्षेत्र और जल-आपूर्ति की अच्छी व्यवस्था पर ध्यान दिया गया था।

दौलताबाद किले की किलाबंदियों का एक हवाई दृश्य। छवि स्रोत : फ़्लिकर।

किले के गढ़ में जाने का रास्ता ‘अँधेरी’ के नाम से प्रसिद्ध एक खतरनाक सुरंग से होकर गुज़रता है, जो किले के प्रवेश द्वार पर आक्रमणकारियों को फँसाने के लिए बना एक अँधेरा मार्ग था। रक्षकों और भंडारण की आवश्यकताओं के लिए, सुरंग की चट्टानों को काटकर कई कक्ष भी बनाए गए थे। ऐसा कहा जाता है कि आक्रमणकारियों को विफल करने के लिए सेना की प्रतिरक्षक टुकड़ियाँ, सुरंग में धुआँ और खौलता हुआ तेल या पानी डालती थीं। आक्रमणकारियों को भटकाने के लिए सुरंगों के बीच छोटे-छोटे द्वार बनाए गए थे, जिनसे बाहर कदम रखते ही, वे खूंखार मगरमच्छों और ज़हरीले साँपों वाले खंदकों में गिर जाते थे।

दौलताबाद किले के परिसर में कई महत्वपूर्ण संरचनाएँ बनी हैं। चाँद मीनार एक विशेष वास्तुशिल्पीय संरचना है, जिसका निर्माण अलाउद्दीन बहमनी ने 1435 ईस्वी में करवाया था। यह संसार की सबसे ऊँची पत्थर की मीनारों में से एक है, और भारतीय-इस्लामी (इंडो-इस्लामिक) वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। कुतुब मीनार की तर्ज़ पर बनाई गई इस मीनार का निर्माण एक ऐसे विजय-स्मारक के रूप में करवाया गया था, जो एक निरीक्षण चैकी का काम भी करती थी। मीनार के तले पर एक छोटी मस्जिद बनी है।

चाँद मीनार का एक दृश्य। छवि स्रोत : विकीमीडिया काॅमन्स।

भारत माता मंदिर भी किले के परिसर की एक अनूठी संरचना है। दिल्ली के खलजी शासक, कुतुबउद्दीन मुबारक के शासनकाल (1318 ईस्वी) के दौरान, यहाँ एक जामा मस्जिद मौजूद थी।

भारत माता मंदिर का एक दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स।

दौलताबाद किले के परिसर में कुशल जल अभियांत्रिकी के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। ‘सरस्वती बावड़ी’ काट-छाँटकर तैयार किए गए पत्थर के खंडों से बना एक सीढ़ीदार कुआँ है, जिसमें जल के स्तर तक जाती सँकरी सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। महाकोट क्षेत्र में स्थित हम्माम का निर्माण, तुगलक काल में हुआ था। इसके कक्षों का उपयोग मालिश और गर्म पानी के स्नान के लिए किया जाता था। पानी एक कमरे से दूसरे कमरे तक मिट्टी की नलिकाओं के माध्यम से पहुँचाया जाता था। इस पथरीली संरचना पर चूने का गारा लगाया गया था और इसके कक्षों की दीवारों को महीन पलस्तर के काम (स्टको) से सजाया गया था।

निज़ाम शाही महलों में कभी सबसे भव्य माना जाने वाला ‘चीनी महल’, अब एक खंडहर बन चुका है। चीनी महल का नाम चीनी मिट्टी की सजावटी नीली मीनाकारी वाली टाइलों के नाम पर रखा गया है, जिनका इसके बाहरी भाग पर उपयोग किया गया है। मुगल काल में चीनी महल एक बंदीगृह था, जहाँ औरंगज़ेब ने गोलकोंडा के अंतिम राजा, अबुल हसन कुतुब शाह को उनकी मृत्यु तक कैद करके रखा था।

चीनी महल का एक दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स।

रंग महल आपस में जुड़े हुए छह कक्षों वाली एक आयताकार संरचना है, और कहा जाता है कि इसे 18वीं शताब्दी ईस्वी में बनाया गया था। इसमें एक धनुषाकार द्वार है, जिसे गोलाकार पदकों और पुष्प वाले डिज़ाइनों से सजाया गया है। इसमें जालीदार खिड़कियाँ हैं और स्तंभों पर जटिल नक्काशियाँ बनी हैं, जो किले में शेष लकड़ी की नक्काशी का एकमात्र उदाहरण हैं। पहाड़ी की चोटी पर 12 मेहराबों वाला एक सफ़ेद मंडप है, जिसे ‘बारादरी’ कहा जाता है। यह अत्यंत सौंदर्यपरक रूप से बनाई गई संरचना, देखने में बहुत आनंदमयी लगती है। इसका निर्माण 1636 ईस्वी में शाहजहाँ के आदेश पर करवाया गया था और औरंगज़ेब इसका उपयोग एक ग्रीष्मकालीन आवास के तौर पर किया करते थे।

बारादरी का दृश्य। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स।

दौलताबाद की तोपें

दौलताबाद का किला अपनी तोपों के लिए भी प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि किले में विभिन्न आकारों, मापों, और संरचनाओं वाली लगभग 288 तोपें हैं। आसपास के क्षेत्र पर निर्बाध नज़र रखने के लिए, किले में बुर्जों पर रखी जाने वाली कई कांस्य तोपें थीं। बल्कि इस किले और इसकी तोपों के माध्यम से, दक्कन के युद्ध-इतिहास में तोपों के विकास और महत्व का अच्छा अध्ययन किया जा सकता है। इनमें से कई तोपें अभी भी बची हुई हैं। औरंगजे़ब की ‘मेढ़ा’ एक उल्लेखनीय तोप है, जिसे मेढ़ा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह मेढ़े के आकार की है। इसे ‘किला-शिकन’ या ‘किला तबाह करने वाली’ भी कहा जाता है। एक अन्य तोप की सतह पर, फ़ारसी में तीन अभिलेख हैं, जिनमें से एक में औरंगज़ेब के भाई, दारा शिकोह, का ज़िक्र है।

मेढ़ा या किला-शिकन। छवि स्रोत : विकिमीडिया काॅमन्स।

यह किला आज भी अपनी अँधेरी गली, बहुस्तरीय किलेबंदी, और रणनीतिक रूप से अवस्थित तोपों के लिए आगंतुकों के बीच अति लोकप्रिय है। रणनीतिक योजना का एक उत्कृष्ट उदाहरण, दौलताबाद का किला सही मायने में एक वास्तुशिल्पीय अजूबा है।

दौलताबाद के किले का एक दृश्य। छवि स्रोत : भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण।